Lekhika Ranchi

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मुंशी प्रेमचंद ः सेवा सदन


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सदन को व्याख्यानों की ऐसी चाट पड़ी कि जहां कहीं व्याख्यान की खबर पाता, वहां अवश्य जाता, दोनों पक्षों की बातें महीनों सुनने और उन पर विचार करने से उसमें राय स्थिर करने की योग्यता आने लगी। अब वह किसी युक्ति की नवीनता का एकाएक मोहित न हो जाता था, वरन् प्रमाणों से सत्यासत्य का निर्णय करने की चेष्टा करता था। अंत में उसे यह अनुभव होने लगा कि व्याख्यानों में अधिकांश केवल शब्दों के आडंबर होते हैं, उनमें कोई मार्मिक तत्त्वपूर्ण बात या तो होती ही नहीं, या वही पुरानी युक्तियां नई बनाकर दोहराई जाती हैं। उसमें समालोचक दृष्टि उत्पन्न हो गई। उसने अपने चाचा का पक्ष ग्रहण कर लिया।

लेकिन अपनी अवस्था के अनुकूल उसकी समालोचना पक्षपात से भरी हुई और तीव्र होती थी। उसमें इतनी उदारता न थी कि विपक्षियों की नेकनीयती को स्वीकार करे। उसे निश्चय था कि जो लोग इस प्रस्ताव का विरोध कर रहे हैं, वह सभी विषय-वासना के गुलाम हैं, इन भावों का उस पर इतना प्रभाव पड़ा कि उसने दालमंडी की ओर जाना छोड़ दिया। वह किसी वेश्या को पार्क में फिटन पर टहलती या बैठी देख लेता, तो उसे ऐसा क्रोध आता कि उसे जाकर उठा दूं। उसका वश चलता तो इस समय वह दालमंडी की ईंट-से-ईंट बजा देता। इस समय नाच करने वाले और देखने वाले दोनों ही उसकी दृष्टि में संसार के सबसे पतित प्राणी थे। वह उन्हें कहीं अकेले पा जाता, तो कदाचित् उनके साथ कुछ असभ्यता से पेश आता। यद्यपि अभी तक उसके मन में शंकाएं थीं, पर इस प्रस्ताव के उपकारी होने में उसे कोई संदेह न था। इसलिए वह शंकाओं को दबाना ही उचित समझता था कि कहीं उन्हें प्रकट करने से उनका पक्ष निर्बल न हो जाए। सुमन अब भी उसके हृदय में बसी हुई थी, उसकी प्रेम-कल्पनाओं से अब भी उसका हृदय सजग होता रहता था। सुमन का लावण्यमय स्वरूप उसकी आंखों से कभी न उतरता था। इन्हीं चिंताओं से बचने के लिए एकांत में बैठना छोड़ दिया। सबेरे उठकर गंगा-स्नान करने चला जाता। रात को दस-ग्यारह बजे तक इधर-उधर की किताबें पढ़ता, लेकिन इतने यत्न करने पर भी सुमन उसकी स्मृति से न उतरती थी। वह नाना प्रकार के वेश धारण करके, हृदय नेत्रों के सामने आती और कभी उससे रूठती, कभी मनाती, कभी प्रेम से गले में बांहें डालती, प्रेम से मुस्कराती। एकाएक सदन सचेत हो जाता, जैसे कोई नींद से चौंक पड़े और विघ्नकारी विचारों को हटाकर सोचने लगता, आजकल चाचा इतने उदास क्यों रहते हैं। कभी हंसते नहीं दिखाई देते। जीतन उनके लिए रोज दवा क्यों लाता है? उन्हें क्या हो गया है? इतने में सुमन फिर हृदयसागर में प्रवेश करती और अपने कमलनेत्रों में आंसू भरे हुए कहती–

‘सदन’ तुमसे ऐसी आशा न थी। तुम मुझे समझते हो कि यह नीच वेश्या है, पर मैंने तुम्हारे साथ तो वेश्याओं का-सा व्यवहार नहीं किया, तुमको तो मैंने अपनी प्रेम-संपत्ति सौंप दी थी। क्या उसका तुम्हारी दृष्टि में कुछ भी मूल्य नहीं है?’ सदन फिर चौंक पड़ता और मन को उधर से हटाने की चेष्टा करता। उसने एक व्याख्यान में सुना था कि मनुष्य का जीवन अपने हाथों में है, वह अपने को जैसा चाहे बना सकता है, इसका मूलमंत्र यही है कि बुरे, क्षुद्र, अश्लील विचार मन में न आने पाएं; वह बलपूर्वक इन विचारों को हटाता रहे और उत्कृष्ट विचारों तथा भावों से हृदय को पवित्र रखे। सदन इस सिद्धांत को कभी न भूलता था। उस व्याख्यान में उसने यह भी सुना था कि जीवन को उच्च बनाने के लिए उच्च शिक्षा की आवश्यकता नहीं, केवल शुद्ध विचारों और पवित्र भावों की आवश्यकता है। सदन को इस कथन से बड़ा संतोष हुआ था। इसलिए वह अपने विचारों को निर्मल रखने का यत्न करता रहता। हजारों मनुष्यों ने उस व्याख्यान में सुना था कि प्रत्येक कुविचार हमारे इस जीवन को ही नहीं, आने वाले जीवन को भी नीचे गिरा देता है। लेकिन औरों ने, जो कुछ विज्ञ थे, सुना और भूल गए, सरल हृदय सदन ने सुना और गांठ से बांध लिया। जैसे कोई दरिद्र मनुष्य सोने की एक गिरी हुई चीज पा जाए और उसे अपने प्राण से भी प्रिय समझे। सदन इस समय आत्म-सुधार की लहर में बह रहा था। रास्ते में अगर उसकी दृष्टि किसी युवती पर पड़ जाती, तो तुरंत ही अपने को तिरस्कृत करता और मन को समझाता कि इस क्षण-भर के नेत्र-सुख के लिए तू अपने भविष्य जीवन का सर्वनाश किए डालता है। चेतावनी से उसकी मन को शांति होती थी।

एक दिन सदन को गंगा– स्नान के लिए जाते हुए चौक में वेश्याओं का एक जुलूस दिखाई दिया। नगर की सबसे नामी-गिरामी वेश्या ने एक उर्स (धार्मिक जलसा) किया था। ये वेश्याएं वहां से आ रही थीं। सदन इस दृश्य को देखकर चकित हो गया। सौंदर्य, सुवर्ण और सौरभ का ऐसा चमत्कार उसने कभी न देखा था। रेशम, रंग और रमणीयता का ऐसा अनुभव दृश्य, श्रृंगार और जगमगाहट की ऐसी अद्भुत छटा उसके लिए बिल्कुल नई थी। उसने मन को बहुत रोका, पर न रोक सका। उसने उन अलौकिक सौंदर्य-मूर्तियों को एक बार आंख भरकर देखा। जैसे कोई विद्यार्थी महीनों से कठिन परिश्रम के बाद परीक्षा से निवृत्त होकर आमोद-प्रमोद में लीन हो जाए। एक निगाह से मन तृप्त न हुआ, तो उसने फिर निगाह दौड़ाई, यहां तक कि उसकी निगाहें उस तरफ जम गईं और वह चलना भूल गया। मूर्ति के समान खड़ा रहा। जब जुलूस निकल गया तो उसे सुधि आई, चौंका, मन को तिरस्कृत करने लगा। तूने महीनों की कमाई एक क्षण में गंवाई? वाह! मैंने अपनी आत्मा का कितना पतन कर दिया? मुझमें कितनी निर्बलता है? लेकिन अंत में उसने अपने को समझाया कि केवल इन्हें देखने ही से मैं पाप का भागी थोड़े ही हो सकता हूं? मैंने इन्हें पाप-दृष्टि से नहीं देखा। मेरा हृदय कुवासनाओं से पवित्र है। परमात्मा की सौंदर्य सृष्टि से पवित्र आनंद उठाना हमारा कर्त्तव्य है।

यह सोचते हुए वह आगे चला, पर उसकी आत्मा को संतोष न हुआ। मैं अपने ही को धोखा देना चाहता हूं? यह स्वीकार कर लेने में क्या आपत्ति है कि मुझसे गलती हो गई। हां, हुई, और अवश्य हुई। मगर मन की वर्तमान अवस्था के अनुसार मैं उसे क्षम्य समझता हूं। मैं योगी नहीं, संन्यासी नहीं, एक बुद्धिमान मनुष्य हूं। इतना ऊंचा आदर्श सामने रखकर मैं उसका पालन नहीं कर सकता। आह! सौंदर्य भी कैसी वस्तु है! लोग कहते हैं कि अधर्म से मुख की शोभा जाती रहती है। पर इन रमणियों का अधर्म उनकी शोभा को और भी बढ़ाता है। कहते हैं, मुख हृदय का दर्पण है। पर यह बात भी मिथ्या ही जान पड़ती है।

सदन ने फिर मन को संभाला और उसे इस ओर से विरक्त करने के लिए इस विषय के दूसरे पहलू पर विचार करने लगा। हां, वे स्त्रियां बहुत सुंदर हैं, बहुत ही कोमल हैं, पर उन्होंने अपने स्वर्गीय गुणों का कैसा दुरुपयोग किया है? उन्होंने अपनी आत्मा को कितना गिरा दिया है? हां! केवल इन रेशमी वस्त्रों के लिए, इन जगमगाते हुए आभूषणों के लिए उन्होंने अपनी आत्माओं का विक्रय कर डाला है। वे आंखें, जिनसे प्रेम की ज्योति निकलनी चाहिए थी, कपट, कटाक्ष और कुचेष्टाओं से भरी हुई हैं। वे हृदय, जिनमें विशुद्ध निर्मल प्रेम का स्रोत बहना चाहिए था, कितनी दुर्गंध और विषाक्त मलिनता से ढंके हुए हैं। कितनी अधोगति है।

इन घृणात्मक विचारों से सदन को कुछ शांति हुई। वह टहलता हुआ गंगा-तट की ओर चला। इसी विचार में आज उसे देर हो गई थी। इसलिए वह उस घाट पर न गया, जहां वह नित्य नहाया करता था। वहां भीड़-भाड़ हो गई होगी, अतएव उस घाट पर गया, जहां विधवाश्रम स्थित था। वहां एकांत रहता था। दूर होने के कारण शहर के लोग वहां कम जाते थे।

घाट के निकट पहुंचने पर सदन ने एक स्त्री को घाट की ओर से आते देखा। तुरंत पहचान गया। यह सुमन थी, पर कितनी बदली हुई। न वह लंबे-लंबे केश थे, न वह कोमल गति, न वह हंसते हुए गुलाब के-से होंठ; न वह चंचल ज्योति से चमकती हुई आंखें, न वह बनाव-सिंगार, न वह रत्नजटित आभूषणों की छटा, वह केवल सफेद साड़ी पहने हुए थी। उसकी चाल में गंभीरता और मुख से नैराश्य भाव झलकता था। काव्य वही था, पर अलंकार-विहीन, इसलिए सरल और मार्मिक। उसे देखते ही सदन प्रेम से विह्वल होकर, कई पग बड़े वेग से चला, पर उसका यह रूपांतर देखा तो ठिठक गया, मानो उसे पहचानने में भूल हुई, मानो वह सुमन नहीं कोई और स्त्री थी। उसका प्रेमोत्साह भंग हो गया। समझ में न आया कि यह कायापलट क्यों हो गया? उसने फिर सुमन की ओर देखा। वह उसकी ओर तक ताक रही थी, पर उसकी दृष्टि में प्रेम की जगह एक प्रकार की चिंता थी, मानो वह उन पिछली बातों को भूल गई है या भूलना चाहती है। मानो वह हृदय की दबी हुई आग को उभारना नहीं चाहती। सदन को ऐसा अनुमान हुआ कि वह मुझे नीच, धोखेबाज और स्वार्थी समझ रही है। उसने एक क्षण के बाद फिर उसकी ओर देखा– यह निश्चय करने के लिए कि मेरा अनुमान भ्रांतिपूर्ण तो नहीं है। फिर दोनों की आंखें मिलीं, पर मिलते ही हट गईं। सदन को अपने अनुमान का निश्चय हो गया। निश्चय के साथ ही अभिमान का उदय हुआ। उसने अपने मन को धिक्कारा। अभी-अभी मैंने अपने को इतना समझाया है और इतनी देर में फिर उन्हीं कुवासनाओं में पड़ गया। उसने फिर सुमन की तरफ नहीं देखा। वह सिर झुकाए उसके सामने से निकल गई। सदन ने देखा, उसके पैर कांप रहे थे, वह जगह से न हिला, कोई इशारा भी न किया। अपने विचार में उसने सुमन पर सिद्ध कर दिया कि अगर तुम मुझसे एक कोस भागोगी, तो मैं तुमसे सौ कोस भागने को प्रस्तुत हूं। पर उसे यह ध्यान न रहा कि मैं अपनी जगह मूर्तिवत् खड़ा हूं। जिन भावों को उसने गुप्त रखना चाहा, स्वयं उन्हीं भावों की मूर्ति बन गया।

जब सुमन कुछ दूर निकल गई, तो वह लौट पड़ा और उसके पीछे अपने को छिपाता हुआ चला। वह देखना चाहता था कि सुमन कहां जाती है। विवेक ने वासना के आगे सिर झुका लिया।

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